Sunday, October 14, 2012

लफ्ज़...


क़ैद से हो गये हैं लफ्ज़,
मेरे कलम की स्याही में,
पूछ रहे हैं मुझसे,
मेरा वजूद, मेरी पहचान.

कहा मैने लफ़्ज़ों से,
मुझे यूँ दगा ना दो,
नया नया शायर हूँ मैं,
ऐसी सज़ा ना दो.

वजूद और पहचान,
तो बाकी है बनाना,
थोड़ा साथ दो तुम मेरा,
तो हो जाए यह काम आसान.

लफ्ज़ सकुचाए,
थोड़ा मुस्कुराए,
थोड़ा इतराए,
और मुझसे बोले.

कहते यही सब शायर हैं,
फिर जाते हैं भूल,
अपनी ही बातों पे उनकी,
पड़ जाती है धूल.

तुम भी तो क़ैद करोगे,
अपनी नज़्म की बंदिश में,
जी लेने दो मधुर प्रवाह में,
जब तक ज़िंदा हैं.

लफ़्ज़ों का अभिमान देख,
थोड़ा मैं घबराया,
फिर मैने बड़ी निपुड़ता से,
उनको यह समझाया.

लफ़्ज़ों का मोल नहीं है,
स्याही के  तरण ताल में,
उनकी सही पहचान तो है,
किसी कविता के मायाजाल में.

लफ़्ज़ों का है बड़ा महत्व,
उसकी तुम पहचान करो,
लफ़्ज़ों की भाषा इस जग में,
तीखा तेज प्रहार है.

यही लफ्ज़ बन जाते अक्सर,
फूलों का उपहार  ,
यही लफ्ज़ रखते हैं खुद में,
तलवार की धार .

लफ्ज़ हंसकर बोले,
तुम जीते हम हारे,
पर तुम हो शायर नादान,
नहीं है तुम्हे गुमान.

होती नहीं लफ़्ज़ों के बस में,
संसार को बदलने की कुव्वत,
यह तो कवि की कल्पना हैं,
शायर का ख्वाब हैं.

कवि ही देता है लफ़्ज़ों को,
पंखों की उड़ान,
हम पर तू निर्भर ना रह,
बना खुद तू अपना मकाम.

©HG


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